अर्श - दिल से

Sunday, August 29, 2010

फ़िल्मी डब्बा

बचपन की कई यादों में से एक याद आज भी मन को छू जाती है ! मेरी पहली बार फिल्म देखने का अनुभव ! हालाँकि उस वक़्त टेलिविज़न और फिल्में आ चुकी थीं पर चूँकि हम बच्चे थे तो हमें फिल्म देखने की मनाही थी और हमारे घर में टेलिविज़न था नहीं! लेकिन हर रविवार हम पड़ोस में जाकर ''रामायण'' जरूर देख सकते थे पर फिल्में..बिलकुल नहीं ! हमारे घर में मानना था की फिल्मों की मार धाड़ से बच्चों पर बुरा असर पड़ता है! सो हमें मन मसोसकर रह जाना पड़ता था! 
जब भी हम किसी चौक या बाज़ार से होकर गुज़रते तो दीवारों पर चिपके पोस्टरों को बरबस ही निहारते रहते ! फिल्म भले ही कभी ना देखी हो पर पोस्टर देख-देख कर हर हीरो का नाम हमें जबानी याद था ! 
'कूली' का अमिताभ हो या धर्मेन्द्र की 'शोले' या फिर सुनील शेट्टी की 'बलवान', अक्षय कुमार की 'खिलाडी' और भी जाने कौन कौन से पोस्टरों पर अपना मन मचल जाता और इच्छा होती की देख कर आयें तो सही की आखिर फिल्म होती कैसी है !
घर से भेजे जाते किसी काम के लिए और हम पोस्टरों से नैन  मटक्का करते रहते बाद में याद आता अरे हमें तो किसी काम के लिए भेजा गया है..!! सच कहूं तो फिल्मों के पोस्टर देख कर कई बार मन में ख्याल तो ये आता की भाजी के पैसे से फिल्म देख आऊं ! पर माँ की मार के डर से कभी हिम्मत ही नहीं जुटा पाता ! सोचता फिर कभी देख लेंगे..!!

मेरा एक खास दोस्त था, जो मेरे फिल्मों के पोस्टरों के प्रति इस प्रेम से वाकिफ था! एक दिन दोपहर में वो मेरे पास दौड़ा-दौड़ा आया और मुझसे बोला- "चल फिल्म देखने चलें..!! "
मैं खुश होकर चलने को तैयार हो गया ! तभी अचानक मुझे याद आया- अरे मैं फिल्म देखने कैसे जा सकता हूँ ..?? मम्मी को पता चला तो मेरा क्या होगा..?? 
मैं बोला- "पागल है क्या ..?? अभी कहाँ जायेंगे फिल्म देखने ..?? मम्मी को पता चला तो मेरा भुर्ता बना देगी..!!"
वो बोला- "अरे कुछ नहीं होगा.. तू चल मेरे साथ..!"
मैंने कहा- "पैसे ..?? कहाँ से आयेंगे..??"
वो बोला- "एक रुपैया है..?? "
मैं बोला- "एक रुपैया ..!! अरे बावले एक रुपैये में कौन फिल्म देखने देगा तुझे..?? पूरे पांच रुपये लगेंगे !! मेरे पास नहीं हैं पैसे..!"
[हालाँकि मैंने कभी सिनेमा देखा नहीं था फिर भी मैंने हर सिनेमा हॉल की रेट पता कर रखी थी
* परदे के  बिलकुल सामने वाली लकड़ी के बेंच वाली सीट- 5 रुपये
* नारियल के रेशे से भरी गद्दी वाली सीट (N.C)- 10 रुपये 
* ऊंचाई पसंद लोगों के लिए आराम देने वाली कुर्सी लगी सीट (D.C)- 15 रुपये ]

वो फिर बोला-" अरे तेरे पास एक रुपये हैं ना..??"
मैंने कहा- "हाँ"
वो बोला- "तो फिर चल!"
मैंने कहा- "अरे ऐसे कैसे चलें..?? ढंग के कपडे तो पहन लेने दे..!"
वो मुझे खींचता हुआ बोला - "उसकी जरूरत नहीं है हम किसी हॉल में नहीं जा रहे हैं..!"
मैं अवाक रह गया, मैंने सोचा ये कौन सी फिल्म देखने जा रहे हैं जो सिनेमा हाल में नहीं लगी!
मैंने उसे रोक कर पूछा- "हम कहाँ जा रहे हैं ..??"
वो बोला- "फिल्म देखने "
मैंने पूछा - "कहाँ..??"
वो बोला- "अगले चौक पे..! अब तू सवाल मत पूछ और जल्दी चल मेरे साथ..!!"
मैं उसके जवाब से संतुष्ट नहीं हुआ फिर भी मन में पहली बार फिल्म देखने की ललक थी और वो भी एक रुपये में !!.. इसी उत्सुकता से मैं तेज़ कदमों से उसके साथ साथ चल पड़ा ! मन में कई तरह के सवाल उमड़ घुमड़ रहे थे !! पता नहीं कौन सी फिल्म देखने जा रहे हैं मनोज टॉकीज़ में तो सुनील शेट्टी की 'टक्कर' चल रही है और और शिवम्  टॉकीज़ में 'धरम वीर'..!! मैं मन ही मन सोच रहा था की धरम वीर देख लेते हैं उसमें तो दो-दो हीरो हैं धर्मेन्द्र और जीतेंद्र ! दो-दो हीरो वाली फिल्म वो भी एक रुपये में !! मज़ा आ जायेगा !!

तभी किसी ने मेरा हाथ झटका- "निकाल पैसे..!!"
मैंने देखा मेरा दोस्त मुझसे पैसे मांग रहा था ! मैंने अपनी छोटी हाफ पैंट की जेब से दो अठन्नी निकाली और उसे थमा दी !
मैंने पूछा कहाँ देखेंगे फिल्म..??
ऊसने कहा- "वो रहा सिनेमा हॉल !!सामने देख !!"
मैंने देखा आगे कुछ लोगों का मजमा लगा है जिसके बीच में एक अधेड़ उम्र का आदमी खड़ा है जिसके सामने एक गोल डब्बेनुमा बक्सा है जिसमें सामने की ओर गोल-गोल छोटी छोटी खिड़कियाँ बनी हैं !! और तीन चार बच्चे उन खिडकियों में से झाँक कर कुछ देख रहे थे.. और वो आदमी उस डब्बे के ऊपर बने एक लीवर को घुमा घुमा कर चिल्ला रहा था-
आइये..!! आइये..!!
बच्चे-बूढ़े और जवान ! सुनिए-सुनिए खोल के कान !
सुनिए-सुनिए अम्मी अब्बा ! साथ मैं लाया फ़िल्मी डब्बा !
एक रुपये में हँसना हँसाना ! एक रुपये में फ़िल्मी गाना !
एक रुपये में मार पिटाई !एक रुपये में फिल्मदिखायी..!!

मैंने सोचा ऐसा कैसे ..?? फिल्म तो हॉल में दिखाते हैं..??
मेरा दोस्त मुझे खींच कर सामने ले गया उसने उस आदमी को पैसे दिए और वो उनमें से एक खिड़की में झाँकने लगा उस आदमी ने मुझे भी इशारा किया, मैं भी झाँकने लगा! अन्दर अँधेरा था थोड़ी देर में उसने पीछे वाला कपडा हटाया तो अन्दर कुछ रौशनी हुई एक सफ़ेद पर्दा था. फिर धीरे धीरे गाना बजने लगा-
नैन लड़ जईहें तो मनवा मां कसक होइबे करी..
छूठिहें प्रेम का पटाखा तो धमक होइबे करी..!!
नैन लड़ जईहें तो मनवा मां कसक होइबे करी..
गाने के साथ साथ सफ़ेद परदे पर दिलीप कुमार की तसवीरें भी आ रहीं थीं! यूँ तो ये गाना मैं रेडियो पर ही सुना करता था आज पहली बार इस गाने की तस्वीर देखी थी ! मैं एकटक बिना पलकें झपकाए अन्दर झांकता रहा और बाहर मेरे पैर भी झूम रहे थे !थोड़ी देर गाना बजने के बाद धुन बदल गयी और साथ ही परदे पर की तसवीरें भी अब कोई डायलॉग आने लगा जिसमे विनोद खन्ना और डिम्पल कपाडिया की तस्वीर आयी और कुछ देर बाद तेज़ धुन के साथ हीरो बने धर्मेन्द्र और विलेन बने रणजीत की मार पिटाई भी शुरू हो गयी! एक तस्वीर में अमिताभ घूँसा मार रहा होता तो अगली तस्वीर में विलेन बना शक्ति कपूर, गोविंदा को पटखनी देता ! मैं भी एकटक अन्दर झांकता रहा फिर अगली तस्वीर में अमरीश पुरी नीचे घायल पड़ा होता है और जीतेंद्र उसके आगे खड़ा होता है और फिर धीमे गाने की आवाज़ पर अगली तस्वीर में हीरो हेरोइन के साथ अक्षय कुमार और शिल्पा शेट्टी जाते हुए दीखते हैं !!
फिर गाना बंद और फिर से अँधेरा..!!
और फिल्म ख़त्म..!!
मैंने आँखें मीचते हुए खिड़की से नज़रें हटाकर बाहर देखा तो भीड़ लगाये बच्चे अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे ! और वो आदमी वापस उस डब्बे के ऊपर बने एक लीवर को उल्टा घुमाने लगा ! 
मैं तो खुश हो गया !! अरे एक साथ इतने सारे हीरो हेरोइन वाली फिल्म देख ली वो भी एक रुपये में ! वाह साहब मज़ा आ गया !!पर थोडा दुखी भी की इतनी जल्दी ख़त्म हो गया !
बाद में मैंने उस दोस्त से पूछा ये फिल्म कौन सी थी..??
उसने कहा- पता नहीं ..!! पर मज़ा आया ना..??
मैंने कहा - हाँ ! पर बहुत जल्दी ख़त्म हो गयी !!
आते हुए मेरे मन में यही चल रहा था की आखिर लोग 5 रुपये देकर फिल्म देखने क्यूँ जाते हैं ??
[जिसका जवाब मुझे बाद में मिला !! :) ]
ये मेरी पहली फिल्म थी जो मैंने देखी वो भी एक रुपये में हालाँकि कुछ समझ नहीं आया पर बहुत ही मजेदार और रोचक लगी!

ये तो था मेरी पहली फिल्म का अनुभव !! क्या आपके पास भी अपने पहली बार फिल्म देखने की यादें है ? मुझसे ज़रूर बाँटिये !! :)

Tuesday, July 13, 2010

  बचपन के खर्चे
 हम सब के पास अपने जीवन के कुछ अनमोल पलों से जुडी कई यादें होती हैं और इनमें से कई यादें हमारे बचपन से जुडी होती हैं.! मुझे अपने बचपन के दिन बहुत अच्छे लगते हैं और मैं शर्तिया तौर पर कह सकता हूँ की आपको भी अपने बचपन की यादों से प्यार होगा.!
क्यूंकि यही वो दिन थे जिनको आपने बिना किसी टेंशन के बिताये होंगे! सही मायने में मैं अपने बचपन के दिनों को जीने की ख्वाहिश रखता हूँ और जब जब मेरे ज़ेहन में ये ख्याल आता है तो बरबस ही मेरा मन जगजीत सिंह की आवाज़ में पिरोये उन शब्दों को गुनगुनाने लगता है !
ये दौलत भी ले लो.. ये शोहरत भी ले लो .!!
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी !
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन..
वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी..!!
हालाँकि बचपन से जुडी कई यादें हैं.. पर मैं चूँकि खाने का शौक़ीन हूँ तो मैं उन दिनों के कुछ ख़ास तो नहीं पर यादगार चीज़ों का ज़िक्र ज़रूर करूँगा !
उन दिनों बाज़ार से यदि हमें कुछ लाने को भेजा जाता तो हम खुश हो जाते की यदि कुछ पैसे बच जायें तो अपनी जीव्हा की लिलिप्सा शांत कर सकें !
उन दिनों जब मैं ६ या ७ साल का था तब पैसों का चलन था ! ५ पैसे और १० पैसों में अच्छी खासी चीज़ें मिल जाती थीं जिनमें हर बच्चा खुश हो सकता था ! इन में से कुछ का ज़िक्र कर रहा हूँ !
सबसे पहले तो वो सफ़ेद प्लास्टिक में लिपटी छोटी छोटी औरेंज की टॉफी.. १० पैसे में चार .. कोई बुरा सौदा नहीं था.. कसम से आज भी उसका स्वाद नहीं भूल पाया मैं! 
दूसरी चीज़ जो मुझे याद है वो थी एक छोटे से कागज़ के डब्बे में पैक की हुई चूरन की डिबिया !
स्वाद में खट्टा मीठा और हल्का तीखापन लिए हुए इस चूरन में जाने क्या ख़ास बात थी की एक बार जो हम इसे चख लेते फिर तो हर बार इसे ही खाने को मन मचलता !
तीसरी चीज़ जो मुझे बेहद पसंद थी वो थी दोनों तरफ से बंद एक लम्बी सी स्ट्रा में भरे हुए छोटे छोटे सौंफ जैसे टुकड़े.. कीमत बस ५  पैसे ! स्ट्रा का एक सिरा काट लो और फिर लो मज़े..!!
 एक और चीज़ मुझे अच्छी लगती थी वो थी पुराने १० पैसे के सिक्के के बराबर एक सफ़ेद टॉफी जो खाने में किसी मिन्ट वाली ठंडी टॉफी की तरह लगती थी जिसके बीच में दो छेद होते थे जैसे बटन में होते हैं ! एक टॉफी खरीद ली.. एक धागा लिया, दोनों छेद से गुज़ार कर बाँध दिया और फिर धागों को आगे पीछे किया तो टॉफी किसी तेज़ घिरनी की तरह घूमती और हम खुश हो जाते. जब इस खेल से मन भर गया तो टॉफी मुंह में डाल ली.. फिर आ गया मज़ा ! १० पैसे में दो दो बार मज़े दिलाने वाली ये टॉफी अब कहीं नहीं मिलती !
इन सबके अलावा लकड़ी के चम्मच में चिपकी और प्लास्टिक की रंगीन रैपर में लिपटी चटनी.. या फिर टेबलेट  की तरह की आमचूर की गोली [आम पाचक ].. या फिर चटपटी गोली जिसके बीच में मूंगफली का दाना होता था.. या फिर रंग बिरंगी लेमनजूसी टॉफी [हम इसे लेम्चूस कहते थे ] ..या फिर काले रंग की तीखी और चटपटी लौजेंस ..!
हाय !! जब जब इन चीज़ों का ख्याल आता है.. बड़ा अफ़सोस होता है..की आखिर मैं बड़ा हुआ ही क्यूँ ?? काश ये चीज़ें फिर मिल पातीं .. काश उनका स्वाद फिर चखने को मिल पाता !!
कहाँ गयीं ये देसीपन लिए हुए मज़े दिलाने वाली चीज़ें ?? आज ये सब जैसे गुम से गए हैं ! आज सबकुछ बदल गया है !
क्यूंकि अब तो Chocolate और Caramel आज के बचपन को सराबोर कर चुका है ! विदेशी आइसक्रीम की ठंडक ने देसी गर्माहट भुला दी है !
चाहे कैडबरी, किट-कैट, डेयरी मिल्क हो या बोर्नविल ! अब तो बच्चे इनकी ही जिद करते हैं  क्यूंकि ये globalisation का ज़माना है! पर ये चीज़ें उन देसी चीज़ों की जगह कभी नहीं ले सकती जिनके स्वाद में कुछ अपनापन था, कुछ ऐसा जो भुलाई नहीं जा सकती! कम से कम मैं तो कभी नहीं भूल सकता ! क्या आप भी ऐसा ही सोचते हैं..?? 
अपनी सोच से मुझे वाकिफ ज़रूर कराएं !! :)

Thursday, July 8, 2010



उड़ान  

मेरा ये पोस्ट मेरे उन दिनों को समर्पित है जब मैं पहली बार धरती छोड़कर किसी वाहन की सवारी करने का लुत्फ़ उठाया ! हालाँकि उन दिनों मेरी औकात चमचमाती मोटरसाईकल पर उड़ान भरने की नहीं थी पर इतनी औकात तो थी की कम से कम मैं साइकिल की सवारी कर सकूं ! मुझे वो दिन याद हैं जब मेरी उम्र के लड़के साइकिल दौडाते हुए एक दुसरे से रेस लगाते थे ! वहीं मेरी उम्र से छोटे बच्चे भी मेरी बगल से कैंची स्टाइल में साइकिल चलाते हुए मुझे यूँ अजीब नज़रों से देखके जाते जैसे मुझे कुछ आता ही नहीं ! मुझे बड़ी शर्मिंदगी महसूस होती थी! मैंने मन ही मन ठान ली थी की अब तो मैं साइकिल चला कर ही रहूँगा! मेरे घर में एक ही साइकिल थी ATLAS की १६" वाली.. जिस से मेरी दीदी स्कूल जाया करती थी और दूसरी साइकिल मेरे पापा चलाते थे जो की मेरे उम्र के हिसाब से ज्यादा ही बड़ी थी ! अतः मेरा चुनाव निश्चित था ! एक दिन मैंने चुपचाप वो छोटी साइकिल निकाली और घर के बाहर वाले खुले मैदान तक ठेलकर ले गया ! अब सवाल ये.. की साइकिल पर बैठूं कैसे ?? बैठ भी जाऊंगा तो चलाऊंगा कैसे..?? मेरे दिमाग में ये सवाल उमड़-घुमड़ रहे थे की धीरे धीरे मेरे दोस्त इकठ्ठे हो गए ! वो सभी साइकिल अच्छी चला लेते थे ! अब शुरू हो गया उनके राय देने का सिलसिला..!!
कोई कहता - "सीट पर मत बैठना..बस पैडल मारते रहना..!!"
किसी ने राय दी- " हैंडल सीधी रखना..!!"
कोई कहता-" नीचे या पीछे बिलकुल मत देखियो..!! सीधे सामने देखना वरना गिर जायेगा..!!"
सब ने एक बात और याद दिलाई.. "जहाँ लगे तू गिरंने वाला है वहां ब्रेक जरूर मार लियो..!!"
मैंने भी झल्लाकर कहा -"ठीक है..!! ठीक है..!!याद रखूंगा.. बस अब तुमलोग धक्का दो.!"
मैंने बताया मैं पहली बार चलने जा रहा हूँ ..सो पीछे से तुमलोग पकडे रहना.! सभी ने हामी भर दी!
मैं भी निश्चिंत हो गया! हम सभी साइकिल एक छोटी सी ढलान पर ले गए और सभी ने साइकिल पीछे से पकड़ ली और मुझे सीट पर बैठने को कहा ! मैंने पक्का कर लिया की सभी मेरी साइकिल के कैरिअर को पीछे से पकडे हैं तो मैं भी सीट पर बैठ गया और उन लोगों ने धीरे धीरे धक्का देना शुरू कर दिया. साइकिल आगे बढ़ने लगी और साथ ही मेरी धड़कन भी.!! सभी पीछे से कह रहे थे -"हम पीछे से पकडे हुए हैं..!!"
मेरे दिमाग में वो सारी बातें घूम रही थी- पैडल मारते रहना..!! नीचे मत देखना..!! हैंडल सीधी रखना..!!
साइकिल और तेज़ होती गयी और मेरा जोश भी..!
मैंने पूछा-"अरे!! तुमलोग पीछे हो न..?? "
जवाब आया-"हाँ ! हम पीछे ही हैं..!! डरना मत..!!
मन को दिलासा देती ये आवाज़ मेरे कानों में पड़ी और मैं थोडा निश्चिंत होते हुए बाकी के सबक मन मैं याद करने लगा..
१. हैंडल सीधी रखना..!!- मैंने हैंडल को जकड लिया ताकि वो इधर उधर न मुड़े..!
२. पैडल मारते रहना..!!- मैंने पैडल मारनी शुरू कर दी! साइकिल थोड़ी और तेज़ हो गयी ! और मेरा जोश उफान मारने लगा!
मैंने सोचा पीछे मुड़कर देखूं की किसी ने पकड़ रखा है या नहीं! तभी मेरे मन में ये तीसरी नसीहत गूँज उठी !
३. पीछे मत देखना..बस सामने देखते रहना..!!- मैंने तुरंत नज़रें सामने की तरफ कर ली!
मैंने सीधे देखते हुए आवाज़ लगाई-"अरे ! पकडे हो न..??"
पीछे से कोई उत्तर न पाकर मेरा मन निशब्द हो गया ! तेज़ भागती साइकिल और चेहरे को छूती हवाओं ने मेरे मन को उन्मुक्तता का एहसास करा दिया ! यूँ लगा जैसे मैं एक आज़ाद पंछी की तरह सागर के ऊपर हवाओं में स्वच्छंद रूप से उड़ा जा रहा हूँ ! चेहरे पर हवाओं के थपेड़ों को महसूस करते हुए मेरी आँखें स्वतः ही मूंद गयीं ! इस अदभुत एहसास से मेरा मन प्रफ्फुलित हो उठा !
अचानक मेरी तन्द्रा टूटी ! और मेरे कानों में ये शब्द पड़े.. ब्रेक..!! ब्रेक..!! अबे ब्रेक मार..!! आगे गढ्ढा है..!! मैं सकपका गया और ये जानने के लिए की आवाज़ कहाँ से आयी मैं तीसरा सबक भूल कर पीछे देखने की गलती कर बैठा !
बस्स..!!!
फिर क्या था ..?? चौथा सबक भी याद नहीं रहा .. की मुझे ब्रेक भी मारना है.. और फिर ..??
मैं गढ्ढे में..!! और साइकिल मेरे ऊपर!
कुछ समय पहले मैं  जिस साइकिल की सवारी कर रहा था वो अब मुझ पर सवार थी..!!
आखिरकार सारे सबक धरे के धरे रह गए ! पर उस दिन के बाद फिर मैं जो साइकिल पर सवार हुआ, फिर शायद ही कभी गिरा होऊंगा.,!!
मेरे लिए तो ये मेरे जीवन की पहली उड़ान थी ! थोड़ी कष्टदायक ..पर बहुत कुछ सिखा गयी ! 






[पसंद आयी हो तो आप भी रायशुमारी कर सकते हैं..और यकीन मानिये ये बिलकुल फ्री है..!!  :)]

Wednesday, June 2, 2010

बिग बॉस और संसार - एक अचार !






बिग बॉस और संसार - एक अचार !
मनुष्य का मन बड़ा ही विचित्र पंछी है! इस पर रोक लगाना बड़ा ही दुष्कर कार्य है! और यह भी स्वाभाविक है की ऐसी विचित्रताओं वाले मन को धारण करने वाला मनुष्य भी विचित्र ही होगा! हम अपने अंतरतम की गहराईयों में छिपे कालुष्य को नकार देते हैं और यदि यही कालिमा हमें औरों में दिखाई दे तो उसे दुनिया को बताने के लिए अपना गला तक फाड़ लेते हैं! हैं न ये विचित्रतम सत्य..? बहरहाल ऐसे ही विचित्र सत्यों की पाई पर मन के विभिन्न रंगों के ताने बाने से रिश्तों की बुनावट करती एक पहेली है - बिग बॉस ! लगभग १२५ देशों में लोकप्रिय यह शो भारत में भी टी आर पी की बुलंदियां छूता रहता है! आखिर क्या है इसकी सफलता का राज़ ॥? कई सेलेब्रिटियों की खिचड़ी.... या नेपथ्य की वो जानी पहचानी आवाज़ ! हम इसकी जडें भी जल्द ही खोजेंगे पर तब तक मित्र- जमे रहना ॥!!
हाँ तो भाई साहब ! हम चर्चा कर रहे थे "बिग बॉस महापुराण" की! चौंक गए बंधुवर !! जी हाँ ! ये कोई महापुराण से कम थोड़े न हैं! जीवन की हरेक सच्चाई दिखता है ये महापुराण - सत्य-असत्य, सुख-दुःख, आशाएं, उमीदें, छल-कपट, क्रोध, इर्ष्या, लोभ, मोह ... हे प्रभु...!! क्या नहीं है...? जीवन का हर वो मसाला मौजूद है जिससे जीवन जीने में हर तरह के चटखारे लिए जा सकते हैं! असल में ये मसाले और चटखारे का नाम सुनकर मेरे ज़ेहन में एक चटपटा नाम ही आता है और वो है- अचार !! अब आप सोच रहे होंगे की बिग बॉस और चटपटे अचार के बीच ये कैसा कनेक्शन ...? मेरे मालिक ! बहुत बड़ा कनेक्शन है ! विश्वास नहीं होता ? चलिए थोड़ी देर बाद शायद हो जाये। पर अभी तो आप ये सब भूल जाइये और कल्पना कीजिये अपनी बालपन की लीलाओं के- वो माँ का बड़े प्रेम से अचार बनाना ..शीशे की बर्नी में भरी और कपडे से ढंकी ..मसालेदार ..चटपटे अचार के टुकड़ों को छत पे सुखाना ..और आपका उसपर नज़रें जमाना..और उसे देखकर जीभ लपलपाना ...!! हेल्लो भाई साहब !! चलिए अब वापस लौट आइये इन सूखे दिनों में ! तो देखा आपने अचार का नाम सुनते ही आ गया ना आपके मुंह में भी पानी! बस अब थोड़ी कल्पनाशीलता और इस्तेमाल करें और ये सोचें की बिग बॉस एक बरनी है..शीशे वाली जिसके अन्दर भरे हैं मीठे आम, खट्टी इमली,तीखी लाल मिर्च, हरियाली शिमला मिर्च, कडवी मेथी के दाने कसैला आंवला, रेशेदार और फीका कटहल आदि आदि ! अब यूँ समझिये की ये साड़ी सामग्री इंसानों के मूलभूत प्रकृति को दर्शाते हैं ! ये सारी चीज़ें तेल में डूबी हुई हैं जो की असल में एक काल्पनिक पारिवारिक रिश्ता है जो सभी घरवालों को एक सूत्र में पिरोती है।


लीजिये बरखुरदार तैयार हो गया हमारा बिग बॉस छाप अचार । अब...? अब क्या इसे टेलीविजन की खुली छत पर टी आर पी की धुप लेने दें , जहाँ हम और आप जैसे निर्दिमाग प्राणी इसे देखकर चटखारे लेंगे। थोड़ी ही देर में हम पाते हैं की इस बर्नी के इर्द गिर्द भारी मजमा लगा हुआ है। कोई अपने पसंदीदा आम को निहार रहा है, तो किसी को मिर्ची पसंद है। वहीँ कोई इमली की खट्टेपन को निहार कर जीभ लपलपा रहा है। समय बीतते बीतते भीड़ बढती जाती है। वहीँ धूप बढ़ने से गर्म हुए तेल में सभी कुलबुला रहे हैं।
सभी का सब्र जवाब दे रहा है कहीं आम की लड़ाई मिर्ची से हो गयी तो वहीँ दूसरी ओर इमली आंवला और कटहल के साथ मिलकर मेथी को निकालने की साज़िश कर रहे हैं। तभी पता चला की धुप ख़त्म हो गयी और अचार का मालिक बर्नी लेकर भीतर चला गया। हम और आप मायूस होकर अगले दिन का इंतज़ार करने के लिए खुद को तैयार कर वापस लौट आते हैं। तो कुल मिलाकर ये है गुप्त ज्ञान इस अचार की सफलता का। पर आपने क्या एक बात सोंची।? की आखिर क्यूँ हम सभी इस अचार भरी बर्नी को निहारना पसंद करते हैं। क्यूँ ? ये सोचते सोचते मैं सो गया और जब आँखें खुली तो सारे सवालों के जवाब मिल गए । राज़ की बात ये है की जैसे ही मेरी आँख लगकी सपने में मुझे बाबा टी आर पी नाथ ने दर्शन दिए और कहा....!!


यही तो दुनिया का खेला है ! भीड़ में भी हर इंसान अकेला है !!
हम सेलेब्रिटियों के बारे में सोचते हैं, क्यूंकि उनमें हम अपने आप को खोजते हैं !!
पलभर में दोस्ती..पलभर में प्यार ! दिल में है नफरत तो संयमित व्यवहार !!
छोटी सी बर्नी में बंद है संसार ! इसीलिए तो फेमस है बिग बॉस अचार !!

-अर्श

Tuesday, June 1, 2010

प्रिय दोस्तों !!
आपका स्वागत है मेरे ब्लॉग पर!
मेरा ये ब्लॉग मेरी आतंरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है!!
मेरे ब्लॉग पर आप मेरे विचार और मेरे अनुभव देख सकते हैं !! आप की भावनाओं का ख्याल रखते हुए मैंने इस ब्लॉग को आप की रुचियों के हिसाब से बांटा है !! आप जहाँ एक ओर मेरे नूतन लेख से परिचित हो सकते हैं , वहीँ दूसरी ओर आपको मेरे ब्लॉग पर पुराने और सदाबहार गानों का संग्रह मिलेगा !!
क्या आप मुकेश की आवाज़ के कायल हैं... या आप सुरैया की धुन पे थिरक उठते हैंतो जनाब आप बिलकुल सही जगह आये हैं
मेरे ब्लॉग पर आप ६० के दशक के अभूतपूर्व नगमो का लुत्फ़ उठा सकते हैं..!
यदि आप हास्य और व्यंग्य के समर्थक हैंतो यकीन मानियेमेरे ब्लॉग पर आप अच्छे लेखकों की व्यंग्य रचनायें (कुछ मेरी भी) पढ़ सकते हैं